निराशाओं के आसमान में जब आशा का कोई बादल नजर आता ,
तब तक मनुष्य के हाथ से सारा अवसर निकल जाता।
वह बाट जोहता तब तक जब तक कोई किरण नजर न आती ,
बस बाट जोहते रहने में ही देर बहुत हो जाती।
पश्चात् अवसर निकलने के अब उसके पास क्या शेष बच पाता ,
कल तक था जो मुस्कराता आज वही मुरझाता।
नयनों में जिसके कल तक सारी दुनिया नजर आती ,
आज उसी के नयनों से अश्रुधारा गिर जाती।
उसके जीवन ने एक सोच कैसे में सफल हो पाऊंगा ,
इस रंगहीन दुनिया में मै कैसे अपने रंग भर पाऊंगा।
यही सोच अब उसे हर पल परेशान किया करती है ,
दिन तो दिन रात में भी सोने न दिया करती है।
मझधार ने जैसे नैया डोले खाया करती है ,
सोच उसकी नज़रों में ऐसे द्रश्य पेश करती है।
उसके मुख पे अब तो केवल प्रश्नचिन्ह दिखते है ,
उसके मुख के प्रश्नचिन्ह कई प्रश्न खड़े कर देते है।
“यह रचना मेरे द्वारा स्वरचित व पूर्णतया मौलिक है। इसका सर्वाधिकार मेरे पास सुरक्षित है।
आपके सुझावों व विचारों की प्रतीक्षा मे…
अब ऐसे राम पैदा नहीँ होते – कुमार हरीश
लिखो भारत – कविता – कुमार हरीश
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