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दानवीर कर्ण

~ दानवीर कर्ण ~

प्रारम्भ से ही प्रारब्ध का इतिहास मुझको ज्ञात था
महाभारत के उस युद्ध में, मैं हर जगह व्याप्त था
माँ कुंती ने जिसको ठुकराया था, राधा ने उसको अपनाया था
था सूर्यपुत्र भले ही मैं, पर सूत अधिरथ ने मुझको पाला था
क्रोध, अपमान और श्राप का बचपन से मेरा नाता था
चुलबुल, चंचल और चालाक मेरा भी एक भ्राता था
शास्त्रों का शौकीन था वो, वेदो का अद्भुत ज्ञाता था
पर सूत और शास्त्र का ये मिलन, पाखंडियो को ना भाता था
पिघलाकर स्वर्ण डाला गले में, तड़पाकर उसको मारा था |

परिवर्तन की चाह में, मैं भी भटक रहा था
अपमान का वो ज्वाला, सीने में भड़क उठा था
समानता की आस में, धनुर्विद्या के ज्ञान को
पंहुचा मैं गुरु द्रोण के समक्ष
पर अहंकार ने उनको भी जकड़ा था
उनके मुख से बस यहीं निकला था
की शस्त्रों पर सुतो का अधिकार नहीं
और अर्जुन के सिवाय मेरी नजरों में कोई और महान नहीं
तिरस्कार का वो बोध व्याप्त था मेरे अंदर
जैसे किसी प्यासे के सम्मुख हो कोई सूखा समंदर
फिर नियती ने अपना खेल दिखलाया
गुरु द्रोण के गुरु भगवान परशुराम से मुझे मिलाया

कठिन परिश्रम और मिन्नतों के बाद
उन्होंने मुझे अपना शिष्य माना था
इस स्वर्ण रूपी कुन्दन को तपाकर उन्होंने
मुझे सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बना डाला था
परन्तु एक झूठ ने मुझसे छीना मेरा ज्ञान था
गुरुदेव हुए मुझसे क्रोधित, और ये उनका अधिकार था
सूत होकर बोला झूठ, ब्राह्मण बनकर पाया उनका प्यार था
ब्रह्मास्त्र का अनुसंधान भूला यहीं उनका श्राप था |

~ दानवीर कर्ण ~

और राजकुमारो के समक्ष उस रंगभूमि में
जब उड़ा मेरे परिचय का उपहास था
तब दुर्योधन ने बढ़ाया हाथ मित्रता का
और बनाया मुझे अंगराज था
फिर सत्ता और शासन के बंटवारे को
हुआ वो चौसर का खेल था,
खेल नहीं, झूठ, पाखंड और
बेईमानी का वो मेल था
धूर्त शकुनी ने फिर चला अपना चाल था
धन, दौलत, राज्य, इज़्ज़त सब गवाकर
पांडव हुआ बेहाल था

कुलवधु की इज्जत उतरे भरी सभा में
यहीं दुर्योधन का शौक था
पाप का यह खेल देखकर भी
भीष्म, द्रोण, धृतराष्ट्र समेत पूरा हस्तिनापुर मौन था
विरोध का साहस सिर्फ मैंने ही दिखलाया था
पर तर्कपूर्वक दुर्योधन ने मेरी बातो को दबाया था
परन्तु पाप ने मेरा भी दामन पकड़ा था
शब्दों के मकड़जाल में फंसकर मैंने
पांचाली को वेश्या कहा था

फिर हुआ वही जिसका ना कभी किसी को आभास था
यह विध्वंसकारी युद्ध महाभारत का आगाज़ था
भाई से भाई, मामा से भांजा, गुरु और शिष्य के इस युद्ध में
एक से बढ़कर एक वीर महारथी थे
स्वयं सृजनकर्ता माधव श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथी थे
केशव के मार्गदर्शन में पांडव बने रणधीर थे
तो कौरवो की सेना में अश्वथामा, गुरु द्रोण, भीष्म पितामाह
समेत अनेक महावीर थे

पर अर्जुन के बाणों के वेग को कोई समझ ना पाया था
लेकिन स्वयं अर्जुन खुद मेरे सामने असहाय नज़र आया था
शेषनाग ने जकड़ा था पहिया, हनुमान थे खुद रथपताका पर
लेकर तीनो लोक का भार श्रीकृष्ण स्वयं हो जिस रथ पर सवार
उस रथ को भी मैंने तीन पग पीछे फेंका था
इससे ज्यादा और भला क्या दूं प्रमाण मैं अपनी वीरता का

~ दानवीर कर्ण ~

दुर्योधन का मित्र भले था मैं, पर मैं पांडवो का भी ज्येष्ठ था
स्वयं देवराज इन्द्र जिससे मांगे कवच कुण्डल की भीख
मैं वो दानवीर सर्वश्रेष्ठ था
जीवन और मरण के बीच जब भयानक द्वंद छिड़ा हुआ था
तब अर्जुन के रथ का पहिया कीचड़ में फंसा हुआ था
चाहता तो तब मैं अर्जुन के प्राण हर सकता था
कौरवों के विजय और उन्माद की वजह बन सकता था

लेकिन, गुरु परशुराम के शिक्षा का ना मैंने अपमान किया
पर्याप्त समय दिया अर्जुन को और उसका इंतज़ार किया
अरे उधर कौन्तेय अर्जुन तो इधर मैं राधेय कर्ण था
अछूत समझते थे सब मुझे, पर मैं भी उसी वंश का अंश था
जब नीति और अनीति के बीच घमासान युद्ध छिड़ा हुआ था
तब पांडवो की राह में, मैं चट्टान बनकर अड़ा हुआ था
परन्तु महाभारत के इतिहास का मुझे तो स्वर्ण अक्षर बनना ही था
पांडवो की हो विजय इसके लिए मुझे तो मरना ही था
लेकिन माधव का वो षड़यंत्र मैं समझ ना पाया था
जब अर्जुन ने मुझ निहत्थे के उपर बाण चलाया था

अब किससे करू मैं सवाल और क्या जवाब मैं मांगता
जब हमारे रिश्तों की सच्चाई को अर्जुन स्वयं नहीं था जानता
प्रश्न अर्जुन से नहीं, प्रश्न तो मुझे अपने पिता सूर्यदेव से था
कि  कैसे श्रीकृष्ण के आदेश पर आपने
कुछ पहर अधिक इस धरा पर बिताया था
अर्जुन के मस्तक पर क्यूं, कर्ण के मृत्यु का कलंक लगाया था
धर्म और अधर्म के बीच जीत हमेशा धर्म की ही होती है
अपने वीर पुत्रो की विदाई पर स्वयं धरती माँ भी रोती है
अधर्म की परिपाटी से निकलकर धर्म के मस्तक पर टीका लगाने आया था
कुंती का पुत्र, माँ राधा का लाल मैं दानवीर कर्ण
इस धरती पर मृत्युंजय कर्ण बनने आया था |

– आदित्य मुकेश मिश्रा

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