विश्व प्रकृति संरक्षण दिवस
हरे-भरे पेड़ सब ओर लगे
है सूनी ना कोई डाली।
मानो वसुधा है ओढ़े बैठी
चादर तन पे है हरियाली।
नग पे तुषार की कलित श्वेतिमा,
देखो ये एैसे छाई है।
ज्यों अवनि ने ममता की एक
श्वेत आँचल फैलाई है।
हवा दरख्त के ऊपर सोती,
बहुत सुहानी लगती है।
डालों पे जब पेंग मारती,
नभ कन्या मस्तानी लगती है।
बाग, तड़ागों में रंग इसका,
निखरा- निखरा रहता है।
घर -आँगन में जब ये आती,
दिल उखड़ा-उखड़ा रहता है।
कट रहे जंगल से नाखुश,
गम को कैसे ढोती है।
बयां करे ये दर्द को कैसे?
अंदर – अंदर रोती है।
इसकी आँखें लाल हुई हैं,
कोई तो दवा पिलाओ।
बिछ जाए हरियाली धरा पर,
कोई तो वैद्य बुलाओ।
जिस दिन ये तोड़ेगी रिश्ता,
प्रकृति खूब तबाही मचाएगी।
पोषित न करना प्रदूषण को
नहीं तो और कयामत ढाएगी।
रंज-ओ-गम इसका सब समझो,
पेंच-ओ-खम से तुम हरो।
चमके चमचम इसका लिबास,
और न कोई भूल करो।
इसे न सुलाओ सलीब पे कोई,
और न चीरहरण करो।
रंग-ए-चमन रहे निखरा-निखरा,
इसके अँचल में रंग भरो।
( रंज – ओ- गम का मतलब – हर प्रकार के दुःख
रंग – ए – चमन का मतलब – बगीचे का रंग
तुषार – बर्फ
नग – पर्वत
कलित – सुंदर
श्वेतिमा – उजाला
सलीब – सूली
पेंच – ओ – खम – एक ऐसी यांत्रिक युक्ति जो कसने के काम आती है।)
– राहुल कुमार सिंह
नवी मुंबई (महाराष्ट्र)
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This Post Has One Comment
प्राकृति का बहुत ही सुंदर वर्णन किया आपने।