आज सुबह मै थोडा देर से उठा। अपने जरुरी दैनिक कार्यो से निवृत हुवा इतने में मीनू मेरे लिए चाय बना चुकी थी। मैने चाय नहीं पी, मै अखबार आने का इन्तजार कर रहा था। ये मेरी पुरानी आदत है, चाय के साथ अख़बार पढ़ना। हर रोज तो सुबह सात बजे तक अख़बार आ जाता है फिर आज क्या हो गया मैं खुद ही बुद बुदा रहा था।
घंटे दो इन्तजार करने के बाद भी जब अखबार नहीं आया तो मुझसे रहा नहीं गया, मैने चप्पल पहनी और बाहर निकलने लगा यह सोचकर की आज अखबार पढ़ने चौराहे वाली चाय की थड़ी पर ही चला जाता हूँ, चाय भी वहीँ पर पी लूँगा, वैसे भी महीनों हो गये बाहर थड़ी की चाय पिये को।, मैं दरवाजा खोलने ही वाला था कि मेन गेट की घंटी बजी।
हर्ष…, कौन हैं बाहर ? जरा देखना… (मीनू रसोई से बोली।)
मै समझ गया, अख़बार आया होगा, आज तो इसकी खेर नहीं…बड़बड़ाते हुए…,
मैंने दरवाजा खोला।
“भैया कुछ काम मिलेगा ?” मुझे काम की जरुरत है!
एक तेरह चौदह साल का लड़का मुझसे काम मांग रहा था।
कौन हो तुम ? कहाँ रहते हो ? यहाँ क्यों आये हो? , मैंने कई सवाल उस पर एक साथ दाग दिए।
“भैया में छोटू, आपके यहाँ रोजाना अखबार मै ही डालकर जाता हूँ।”
तो फिर आज क्यों नहीं लायें, तुम्हें पता नहीं मै कब से इन्तजार कर रहा हूँ ? (मैंने उसे डांटते हुए कहा।)
“भैया वो आज सेठजी ने मुझे निकाल दिया, नया लड़का रख लिया।”
क्यों…? (मैंने जिज्ञासावश पूछा।)
“मै पढ़ा लिखा नहीं हूँ ना इसलिए।” (उसने अपने भरे हुए गले से कहा)
ठीक है ठीक है, जाओ, तुम कुछ और काम देखो (मैंने उसे समझाते हुए कहा)
“भैया, प्लीज कुछ काम दे दीजिये ना।”
यहाँ तुम्हारे लायक कोई काम नहीं है, तुम्हे काम दूंगा तो पुलिस मुझे अन्दर कर देगी, तुम्हें पता है ना बाल मजदूरी करवाना अपराध है, इसकी सख्त सजा मिलती है। (मैनें भी समाज की तरह ‘बाल मजूदरी अपराध है’ का खोखला नारा दो चार बार उसके सामने दोहरा दिया।)
“भैया प्लीज, कुछ भी काम दे दो, सब कर लूँगा और किसी को नहीं कहूँगा कि मैंने आपके यहाँ काम किया।”
रसोई की खिड़की से मीनू सब देख और सुन रही थी, बाहर आयी और बोली
बाल मजदूरी करवाना अपराध है, मानवता दिखाना नहीं।
देखिये इसे, इसकी उम्र को, बेचारा परिस्थिति का मारा है, बाल मजदूरी पर इतना अच्छा भाषण दे दिया अब इसकी कुछ मदद भी कर दीजिये, काम मत दीजिये कुछ पैसे ही दे दीजिये। बेचारा कुछ खा पी लेगा। (वो दयनीय स्वर में बोली)
बच्चे के प्रति उसकी दया मेरे लिए एक व्यंग्य थी।
मैने जेब से पचास रूपये का फटा पुराना नोट निकाला और उसके हाथ में थमा दिया ये कहते हुए कि जाओ कुछ खा पी लेना।
“नहीं भैया, मुझे काम चाहिए… भीख नहीं।”
बड़ा अजीब लड़का है, पैसे के पीछे दुनिया भाग रही है और ये लड़का मुफ़्त में मिल रहे पैसे के लिए मना कर रहा है
अजीब नहीं, मेहनती और ईमानदार है। (मीनू की आँखों में बच्चे की ईमानदारी की ख़ुशी झलक रही थी)
“मैं आपके छत की सफाई कर दूँ ?”, बारिश में छत ख़राब भी हो रही होगी !
मैंने मना कर दिया। (आखिर बच्चे से काम कैसे करवाता, मेरे भी तो कुछ आदर्श है)
हाथ जोड़ते हुए दयनीय स्वर में.. “प्लीज भैया करा लीजिये न, अच्छे से साफ करूंगा।”
दे दीजिये न हल्का फुल्का कुछ काम जिससे आप के सिर पर बाल शोषक़ होने का दाग भी न लगे और इसकी मदद भी हो जाए”
“अच्छा ठीक है, कितने पैसे लोगे ?”
छोटू – पैसा नहीं भैया, खाना दे देना, मुझे खाना ही चाहिए।”
ओह !! “तो आ जाओ”, काम पूरी सावधानी से काम करना, छत पर भारी और वजनदार चीजें भी रखी हुई है, अलमारी के टूटे हुए कांच भी पड़े हैं, तुम्हे चोट ना आज जाये इसका भी ध्यान रखना, हल्की फुल्की सफाई कर लेना, ज्यादा परेशान भी मत होना..!
एक माँ की तरह मीनू उसे हज़ार जरुरी नसीहतो के साथ झाड़ू वगैरह देकर रसोई में खाना बनाने चली गयी और मैं थड़ी पर अखबार पढ़ने।
लौटते वक्त रास्ते में मेरे अजीज मित्र डॉक्टर राहुल मिल गये।
मेरा ऑफिस उनके क्लिनिक के बाजू में ही है।
बता रहे थे कि “आज तो सुबह सुबह पुण्य कमा लिया, एक बेहद गरीब महिला मेरे क्लिनिक पर आई, बहुत बीमार थी, फ़ीस मांगने की हिम्मत नहीं जुटा पाया बल्कि कुछ दवाएँ भी साथ दे दी, क्या फर्क पड़ गया सौ-दो सौ रुपयों में, ठीक हो जाएगी तो दुवाएँ देगी।”
“आप जैसे डॉक्टर है तभी तो गरीबों को इलाज नसीब है वर्ना कुछ डॉक्टर तो सफ़ेद कोट में गिद्ध बने बेठे हैं, पैसो के लिए मुर्दों का भी इलाज कर देते हैं। उनकी पीठ थपथपा कर मै वापस घर आ गया।”
इतनी बड़ी छत इतनी जल्दी तो साफ़ नहीं होगी पर उसे भूख जरुर लग रही होगी, पहले खाना दे देती हूँ…मीनू बुदबुदाते हुए छत पर गयी।
मीनू – सुनो..! पहले खाना खा लो, काम बाद में कर लेना।
छोटू – नहीं भाभी, बस थोड़ा सा काम बचा है, पहले काम कर लूँ फिर आप खाना दे देना।
मीनू – ठीक है ! कहकर अपने काम में लग गयी।
छोटू – एक घंटे बाद “भाभी देख लीजिये, सफाई अच्छे से हुई कि नहीं।
मीनू – अरे वाह! तुमने तो बहुत बढ़िया सफाई की है, बारिश की काई भी साफ़ कर दी और गमले भी करीने से जमा दिए। शाबाश… अब तुम हाथ मुंह धो लो, मैं खाना लाती हूँ।
जैसे ही मीनू ने उसे खाना दिया! छोटू ने जेब से पोलीथिन की थेली निकाल कर उसमें खाना रखने लगा।
मीनू – भूखे पेट काम किया है, अब कम से कम खाना तो यहीं बैठकर खा लो। गरम गरम रोटियां है, जरूरत होगी तो और दे दूंगी।
छोटू – नहीं भाभी, खाना मुझे घर ले जाना है, मेरी माँ घर पर बीमार है। सुबह अस्पताल दिखाया, एक दरियादिल डॉक्टर साहब ने हमारी हालत देख हमसें फीस नहीं ली, बल्कि दवाएँ भी मुफ्त में दे दी लेकिन उन्होंने कहा है दवा खाली पेट नहीं लेनी है। इसलिए खाना ले जा रहा हूँ। (ये बोलते वक्त उसका गला भर आया)
मीनू की आँखों में आँसू आ गये, वो रो पड़ी…उसने अपने हाथों से उस मासूम छोटू को उसकी दुसरी माँ बनकर खाना खिलाया…।
फिर… रसोई में जाकर उसकी माँ के लिए भी खाना बनाया…।
मै और मीनू खाना लेकर छोटू के साथ उसके घर गये। उसकी माँ बिस्तर में सोई हुई थी।
हमें देखकर उसकी माँ आश्चर्य में पड़ गयी,
कहने लगी…, साहब आप!, इस गरीब विधवा की झोपडी में…!
मै कुछ कहता उससे पहले मीनू बोल पड़ी…
बहिन… आप गरीब नहीं, बहुत अमीर हो…
जो संस्कारों की दौलत आपने अपने बेटे को दी है वो अमीर से अमीर परिवार के लोग भी अपने बच्चों नहीं दे पाते…।
- कुमार हरीश
यह कहानी मेरे द्वारा लिखित व पूर्णतया मौलिक है। इसका सर्वाधिकार मेरे पास सुरक्षित है। आपको ये कहानी कैसी लगी ? आपके सुझावों व विचारों की प्रतीक्षा मे… कुमार हरीश
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❤️❤️❤️🙏
आभार राजेश भाई ….