माना कि
मैं कविता तो नहीं हूँ
फिर भी मन के भावों में
उतरना चाहती हूँ।
शब्दों की इस अथाह रूप को
अब परिष्कृत आकार देना चाहती हूँ।
क्या नैतिक और क्या अनैतिक
है नहीं अब मुझे पता
मैं तो अब किसी कवि की कविता
बन के उसके सु:ख दु:ख की
सरिता में उतरना चाहती हूँ।
जिंदगी के इन छूटे लम्हों में
मैं यूं ही अब समा जाना चाहती हूँ।
माना मैं कविता तो नहीं हूँ
पर साँझ की इस हरित बेला पर
भव्यता का शोभित कल्पित रूप
छिटकाना चाहती हूँ।
मैं कविता तो नहीं
फिर भी
मन की गहराइयों
में उतरना चाहती हूँ।
– उषा यादव
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