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मैं एक बूढ़ा हूं

~ मैं एक बूढ़ा हूं ~

मनुष्य के बुढ़ापे की अवस्था का सचित्र वर्णन करती ज्ञानेंद्र कुमार सूर्य की बुढ़ापे पर कविता

मेरा बचपन खो गया
यौवन साथ छोड़ गया
शक्ति उत्साह सुंदरता
मेरे पास कुछ भी तो नहीं रहा
कमजोर लाचार
जर्जर बीमार
एक शरीर हूं
मैं एक बूढ़ा हूं।

जैसे घर के लोग
घर के बेकार सामान को
घर के कोने में डाल देते हैं
ठीक उसी तरह
घर के कोने में
एक खाट पर
उपेक्षित पड़ा हूं
मैं एक बूढ़ा हूं।

एक छोटा सा
कमरा ही मेरा संसार है
छत आकाश है
और चारों दिशाएं
कमरे की चार दीवार है
मौसम बदल जाने तक
मैं अपनी करवट नहीं बदल पाता
तारीख महीने का बदलना
मुझे पता नहीं चलता
पता नहीं इसी तरह
कब से पड़ा हूं
मैं एक बूढ़ा हूं।

शायद जितना सुंदर
होता है बचपन
उतना ही कुरूप होता है
यह बुढ़ापा
शरीर का हर अंग
आंख कान दांत
पैर हो या हाथ
सब छोड़ देते हैं
बुढ़ापें में साथ।

मेरी धर्मपत्नी
जो कभी बिना पूछे और अकेले
कहीं नहीं जाती थी
मुझे छोड़ अकेले
मुझसे पहले चली गई
सदा के लिए।

नींद भूख
सभी ने साथ छोड़ दिया
हां कुछ नए मित्र बने हैं
जो रहते हैं मेरे साथ
हर क्षण हर पल
दिन और रात
उन नए मित्रों के नाम है
दर्द और बीमारी
शायद अब यह तभी जाएगा
जब मैं मौत को गले लगा लूंगा।

कल
घर परिवार का बोझ
मेरे कंधों पर था
आज अपने शरीर का
बोझ भी नहीं उठा पाता
सच्चाई तो यह है
अब मैं स्वयं एक बोझ हूं
परिवार पर।

मनुष्य के बुढ़ापे की अवस्था का सचित्र वर्णन करती ज्ञानेंद्र कुमार सूर्य की बुढ़ापे पर कविता

कल
परिवार के सभी लोग
मेरे आने का
बेसब्री से इंतजार करता था
खाट पर पड़ा
आज मैं
मौत का इंतजार कर रहा हूं
पता नहीं
जीवित हूं या मरा हूं
मैं एक बूढ़ा हूं।

एक दिन की बात है
मुझे आज भी
अच्छी तरह याद है
मेरा बड़ा बेटा
उस समय था बहुत छोटा
बीमार हो गया था
जोर का बुखार हो गया था।

कोई ऐसी देवी देवता नहीं
जिसे उसकी मां ने नहीं पुकारा हो
जब तक बेटा
पूरी तरह ठीक नहीं हो गया
हम दोनों
अन्न का एक दाना नहीं खाया था
रात भर सो नहीं पाए थे
और आज
रात भर रहा हूं खांस
कोई देखने नहीं आया
हां कानों में
बहु की आवाज आई
बुड्ढा मरता क्यों नहीं।

कितने अच्छे
होते हैं वे जो
चलते चलते चले जाते हैं
मैं खाट पर पड़ा
मौत की भीख मांग रहा हूं
मैं एक बूढ़ा हूं।।

– ज्ञानेंद्र कुमार सूर्य

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This Post Has 3 Comments

    1. आपका स्नेह मिलता रहे है…बहुत बहुत आभार आपका मनोरमा दीदी

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