~ ख़ामोशियां ~
जाने क्यों हर ज़ख़्म चुप था चुप रही ख़ामोशियां
फिर भी तेरे दर्द-ए-ग़म को कह गई ख़ामोशियां
जानता हूं हर ख़ुशी रूठी है तुझसे बेज़बा
मुद्दतों से कहती आयी अनकही खामोशियां
वक्त के संग बदले कितने रंग तो गुलशन भी थे
क्यों मगर बदली निगोड़ी भी नहीं खामोशियां
जब परिंदे लौट आते शाम में शाख़े – नज़र
शोर गुल लम्हे भर की फिर दिखी ख़ामोशियां
हो गया अरसा तीरे लब पे किसी मुस्कान की
आएगी लेकर तबस्सुम है यक़ी ख़ामोशियां
दस्तकें इंसान ने दीं तब दर पे तेरे अनगिनत
जाने क्यों हर बार उसको भी मिलीं ख़ामोशियां
शाख़े-नज़र – डालियों पर दिखना , तबस्सुम – मधुर मुस्कान
नवी मुंबई (महाराष्ट्र)
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