जन्माष्टमी पर कविता
निज रक्षा के अधिकार का हो रहा हनन,
चहुँ दिशाओं में फैला स्वार्थ का प्रभंजन।
जन्माष्टमी पे भी नहीं है कहीं सुख शांति-
एक बार आओ कान्हा करो मन मंथन।।
वैश्विक बीमारी और त्रस्त हैं सकल जन,
विवश विकल बलहीन हुआ कर्मठ तन।
जन्माष्टमी पे कृष्ण लीला करना जरुरी-
एक बार आओ कान्हा करो शीतल मन।।
भ्रष्टाचार जमाखोरी की आदत है पुरानी,
नारियाँ आज भी बहा रहीं नेत्रों से पानी।
जन्माष्टमी पर अब भी हो रहा चीर हरण-
एक बार आओ कान्हा रोक दो मनमानी।।
धर्म और कानून में न रही अब कोई प्रीत,
धर्मान्ध जन चला रहे हैं आज कट्टर रीत।
जन्माष्टमी पर प्रेम का हो रहा बंटवारा-
एक बार आओ कान्हा बनो मन मीत।।
नफरत-घृणा हैं तैयार करने स्नेह का खून,
प्यार भरी बातों को नहीं रहा है कोई सुन।
जन्माष्टमी पर सर्द मनुज धृतराष्ट्र हो उठा-
एक बार आओ कान्हा बजाओ स्नेह धुन।।
रचनाकार – मनोरमा शर्मा
स्वरचित एवं मौलिक
हैदराबाद, तेलंगाना
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आदरणीय मंच का तहे दिल से आभार
सुन्दर रचना, शब्द चयन उत्तम, भावपूर्ण रचना।