दिन भी मेरे रात से तन्हा है
उसमे भी तेरा साथ कहां है
सुनाई देती है तेरी आवाज लेकिन
दिल के अब वो हालात कहां है
देखता हूँ हर रोज कितने ही चेहरे
जो बात थी तुझमे अब वो बात कहाँ है
बेसब्र हें आज भी महफ़िल सजाने को
हमारी वो पिछली मुलाकत कहाँ है
गुमशुदा हे मेरे वो दिन सुकून के
जिस पर चेन से सोता था वो हाथ कहाँ है
जिन्दगी की दौड़ में बहुत ही भागा हूं
जब पहली बार चला था वो शुरुवात कहां है
फर्क इतना है कि जीवन में सन्नाटे नही
ख़ामोशी की भी अब इतनी औकात कहाँ हे
दिन भी मेरे रात से तन्हा है ,
उसमे भी तेरा साथ कहां है !!
– कुमार हरीश
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लिखो भारत – कविता – कुमार हरीश
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This Post Has 8 Comments
Good
Very awesome
thank you
proud of you sir 😍
thanks
nice
बहुत खूब, हरीश जी।
आपका स्नेह बना रहें…