~ देशभक्ति कविता ~
थीं १६०८ ईस्वी
जब अंग्रजी पलटन
ईस्ट इंडिया कंपनी बन
सूरत के बंदरगाहों पे आयी थी,
हम सच्चे सरल सनातन आर्यवृती थे,
अतिथि देवों भव: के भावो से भरकर
हमने अपने गले से लगाई थीं,
वो कुटिल कपटी गोरे थे
मैली मानसिकता के लिपटे थे
हम उनके भावो को समझ ना पाए थे,
मसाले के व्यापार की आड़ में
आंखो में मिर्च झोंक वो सत्ता पाने आए थे,
नादान ही रहे हम प्लासी के युद्ध में भी,
जहां से कम्पनी ने शासन की नींव डाली थी,
हुआ शुरू दौर यहीं से अन्याय, अधर्म का,
पूरे देश की खुशहाली में सेंध लगा डाली थीं,
शुरू हुए विरोध में जनांदोलन कई
पर अंग्रेजो के कानों में जूं तक ना रेंगी थीं,
राज्य हड़पने की फिर नई गोट,
‘ गोद निषेध ‘ डलहौजी ने फेकी थी ,
होती बात केवल एक राज्य मात्र की
तो भी चुप सह जाते,
पर धार्मिकता संस्कृति पर आए संकट
पर भला खामोश कैसे रह जाते,
हुआ तांडव फिर 1857 को भारी था,
जिसने ईस्ट इंडिया कंपनी के
पंजो को जमीन से उखाड़ा था ,
देख जनाक्रोश भारी ब्रिटिश संसद
ने कुटिल नीति खेली थी,
ख़तम कर अस्तित्व कम्पनी का
विक्टोरिया के हाथों
देश की कमान सौंपी थी ,
पहले तो चला सब ठीक ठाक
और आक्रोश शांत हुआ ,
उसके पश्चात शुरू वहीं घिनौना खेल हुआ,
अन्याय अधर्म शोषण पर जोर दिया,
एक ही आंगन के दो भाइयों को
मजहब के नाम पर तोड़ दिया,
रोज के बढ़ते जुल्म अन्याय के खिलाफ
एक नई आवाज़ उठी
बैनर्जी के कर कमलों से,
राष्ट्रीय कांग्रेस की फिजा मिली ,
और देश को उम्मीदों की एक नई दिशा मिली
हुआ दौर शुरू एकत्रीकरण का,
गुपचुप गुपचुप की सिसकियों को
एक चीख बना अंग्रेजो तक पहुंचाने का,
पाकर बापू का मार्गदर्शन ,
अहिंसा का अस्त्र उठा आंदोलन में
उतर आने का,
पर ये धूर्त कहां
विनय प्रार्थना को सुनने वाले थे,
अहिंसा की भाषा केवल
कहां समझने वाले थे,
ये रक्त पिपासु थे रक्त का रंग ही जानते थे,
बैठे जलियावाले बाग में निहत्ते लोगो पर
गोली दागना जानते थे,
उपजा हिंसा का बीज यहीं से ,
रूप श्री राम का रौद्र हुआ,
कुचलने का फन कालिया नाग का
बंसीधर का भी फिर तांडव हुआ,
यहीं से उपजे ऊंधम सिंह
चन्द्र, रोशन, बिस्मिल, असफाक का
क्रांति रथ निर्माण हुआ,
देखकर लहू से लथपथ जिस्म लाला का
भगत राजगुरु सुखदेव का लहू खौल उठा,
कड़की सेना जब नेता जी की तो
अंबर से भी बवंडर घनघोर हुआ,
चारो तरफ घिरा फिरंगी,
भारत मां का शेर दहाड़ उठा,
हुआ आंदोलन फिर बापू का
‘ भारत छोड़ो ‘
‘ करो या मरो ‘
के नारे का खूब
प्रचार हुआ,
जान गया फिर फिरंगी,
भारत में रहना अब ना आसान रहा,
जाते जाते धूर्त कुकर्मी
आंगन को दो भागों में बांट गया,
१५ अगस्त १९४७ की नवीन भोर को
भारत देश आजाद हुआ,
हुआ नया सवेरा नया सूर्य था,
सबकुछ स्वतंत्र आजाद था,
सब थे मालिक स्वयं के हक के
कोई किसी का ना गुलाम था,
हुई आजाद बेड़ियों से भारत माता
ऐसा क्रांति का स्वतंत्र इतिहास था,
स्वर्णिम अक्षर से लिखा गया,
माँ के शेरो ने जो
रक्त से अपने विजय इतिहास रचा…
– पं. शिवम् शर्मा
रूरा, कानपुर देहात, उत्तर प्रदेश
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This Post Has 2 Comments
बहुत ही बढ़िया शिवम भैया 🙏🙏🙏 बहुत ही अच्छी पंक्तियां 🙏🙏🙏🙏🙏
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