बूढ़ी हड्डियों पे मांस का चादर
मैंने देखा था एक पथ पर
दर्द भरी टांगों से अपनी
खींच रहा था रिक्शा हरपल
कभी उतरकर, कभी वो झुककर
कभी लदी बोरी को पकड़कर
बढ़ रहा था, आगे हरपल
शायद नहीं था उसको प्यास
या भूख का नहीं हुआ एहसास
जिसके कारण, तन पे उसके
आज भी दिखता, थोड़ा मांस
फिर भी हो सबसे अनजान
लू, धूप व गर्मी में भी
बढ़ना ही था उसका काम
तभी तो थकता, फिर भी चलता
और ना करता, कभी आराम
भर उत्साह, अपने मन में
स्वयं जी रहा था, एक जीवन काल।
– नीरज श्रीवास्तव
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लिखो भारत – कविता – कुमार हरीश
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This Post Has 9 Comments
Bahut khub
आपको हमारी रचना पसंद आई उसके लिए बहुत बहुत आभार…आने वाली रचनाओं के लिए दिल से स्वागत
देवव्रत जी, आपका बहुत बहुत धन्यवाद और आभार।
सर आपने जो लिखा ओ काबिले तारीफ और मर्मस्पर्शी है आपको कोटि कोटि धन्यवाद
बहुत बहुत धन्यवाद…
पिंटू जी आपका बहुत बहुत धन्यवाद और आभार।
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