उर्जा व उत्साह से परिपूर्ण कविता ‘ बंधन को दो फेंक ‘
स्निग्ध शांति और पिंजरा पेड़ पर,
कज्वल दिशाएँ हँस रही हैं मेड़ पर,
तिमिर वात्याचक्र से गायब हैं तारे,
पिंजरे से बाहर निकल देख नजारे।
रजनीबाला की मूर्छा है अब गहरी,
तेरे पुजारी भी तुझपे लगाए प्रहरी,
तोड़के बंधन देख दिन की हलचल,
स्वतंत्र हो नभ मे बहा आभा जल।
पर लगाके करो मेघों का अभिषेक,
फैलाकर आँचल, बंधन को दो फेंक,
अपनी शक्ति पर करो सदा विश्वास,
स्वाधीन व्यक्ति पे धरा रखती आस।
पराधीन साँसों की समाधि है जीवन,
उर का पिंजरा खोल विचराओ मन,
हँस उठेंगे तुम्हारे स्वतंत्र आद्र नयन, बंधन को दो फेंक
समक्ष तेरे शीश झुकाए बहता पवन।
– मनोरमा शर्मा
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शानदार